mp मध्यप्रदेश विधानसभा में आदिवासी मुद्दों पर घमासान: कांग्रेस ने जमीन और जंगल के अधिकारों को लेकर उठाई जोरदार आवाज

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mp मध्यप्रदेश विधानसभा में आदिवासी मुद्दों पर घमासान: कांग्रेस ने जमीन और जंगल के अधिकारों को लेकर उठाई जोरदार आवाज
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mp आदिवासियों के अधिकारों की अनदेखी पर भड़की कांग्रेस, पत्तों की माला पहनकर किया प्रतीकात्मक प्रदर्शन, सरकार पर लगाए गंभीर आरोप।


mp 📌 मुख्य खबर – 30 जुलाई 2025:

मध्यप्रदेश विधानसभा के मानसून सत्र के तीसरे दिन राजधानी भोपाल का राजनीतिक माहौल अचानक गरमा गया जब कांग्रेस ने आदिवासी समुदाय के अधिकारों को लेकर जोरदार विरोध प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन विपक्ष के नेता उमंग सिंघार की अगुवाई में किया गया जिसमें कांग्रेस के कई विधायक पारंपरिक अंदाज़ में, पत्तों से बनी मालाएं पहनकर और बैनरों के साथ सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते नजर आए।

🧾 क्या हैं कांग्रेस के आरोप?

प्रदर्शन का प्रमुख उद्देश्य सरकार पर यह दबाव बनाना था कि वह आदिवासी समुदाय की ज़मीन, जंगल और जल के अधिकारों की रक्षा करे। प्रदर्शन कर रहे विधायकों ने सरकार पर निम्नलिखित आरोप लगाए:

  • जमीनों से आदिवासियों को जबरन बेदखल करना
  • वन अधिकार अधिनियम के तहत दिए गए पट्टों को रद्द करना
  • पेसा कानून को लागू न करना
  • जंगल, जल और ज़मीन पर आदिवासियों के पारंपरिक अधिकारों को खत्म करना

📖 पृष्ठभूमि: आदिवासी अधिकारों की लड़ाई

मध्यप्रदेश देश का वह राज्य है जहाँ सबसे बड़ी आदिवासी आबादी निवास करती है। राज्य की कुल जनसंख्या में लगभग 21% हिस्सेदारी आदिवासी समुदाय की है। मंडला, डिंडोरी, छिंदवाड़ा, और बालाघाट जैसे जिले इस समुदाय के प्रमुख क्षेत्र हैं।

वन अधिकार अधिनियम 2006 और पेसा कानून 1996 जैसे कानूनों का उद्देश्य था आदिवासियों को उनकी जमीन, जंगल और स्वशासन का कानूनी अधिकार देना। लेकिन व्यवहार में इनके क्रियान्वयन को लेकर सवाल उठते रहे हैं।

🏗️ विकास बनाम अधिकार: टकराव क्यों?

पिछले कुछ वर्षों में राज्य में औद्योगिक और अवसंरचनात्मक परियोजनाओं की रफ्तार तेज हुई है, जिनमें खनन, बांध निर्माण, और औद्योगिक कॉरिडोर प्रमुख हैं। इन परियोजनाओं के लिए सरकार ने जिन ज़मीनों का अधिग्रहण किया, वे अधिकांशतः आदिवासी क्षेत्र में थीं।

इससे आदिवासी समुदाय के बीच यह भावना गहराई कि विकास की आड़ में उनके जीवन और संस्कृति को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।

⚠️ मंडला की घटना और बढ़ता असंतोष

वर्ष 2024 में मंडला ज़िले में हुई एक कथित नक्सली मुठभेड़ में एक आदिवासी युवक की मृत्यु ने इस मुद्दे को और अधिक संवेदनशील बना दिया। स्थानीय संगठनों ने इस घटना को ‘फर्जी मुठभेड़’ करार देते हुए न्यायिक जांच की मांग की थी।

यह घटना आदिवासी समुदाय के बीच डर और असंतोष की एक नई लहर लेकर आई।

🌲 केंद्र सरकार की नीतियों पर भी सवाल

सिर्फ राज्य सरकार ही नहीं, केंद्र सरकार की नई वन नीति और वन संरक्षण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन ने भी आदिवासी संगठनों को चिंतित किया है। उनका मानना है कि इन बदलावों से आदिवासी क्षेत्रों में कॉर्पोरेट हितों के लिए रास्ता आसान हो जाएगा और स्थानीय समुदायों के अधिकार कमजोर हो जाएंगे।

🎤 राजनीतिक प्रतिक्रिया और विपक्ष की मांग

विपक्ष के नेता उमंग सिंघार ने प्रेस को संबोधित करते हुए कहा कि:

“सरकार आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर उनके अधिकार छीन रही है। न तो पेसा लागू हो पाया है और न ही वन अधिकार अधिनियम का सही क्रियान्वयन हो रहा है। हम विधानसभा में इस मुद्दे को उठाते रहेंगे।”

उन्होंने मांग की कि राज्य सरकार को आदिवासी समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए तुरंत विशेष सत्र बुलाना चाहिए और पेसा व अन्य कानूनों को लागू करने की ठोस योजना प्रस्तुत करनी चाहिए।

📣 सरकार की सफाई क्या रही?

सरकार की ओर से फिलहाल कोई विस्तृत जवाब सामने नहीं आया है, लेकिन सत्तारूढ़ दल के कुछ नेताओं ने इस प्रदर्शन को “राजनीतिक स्टंट” करार दिया और कहा कि विकास और संरक्षण में संतुलन बनाने की कोशिश की जा रही है।

📊 क्यों ज़रूरी है यह मुद्दा?

  • आदिवासी समुदाय भारत की सांस्कृतिक और पारंपरिक विविधता का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
  • उनकी जीवनशैली प्रकृति पर आधारित है, इसलिए ज़मीन, जंगल और पानी उनके अस्तित्व से जुड़ा सवाल है।
  • कानून तो बने हैं लेकिन ज़मीनी हकीकत में बदलाव नहीं हुआ है।

💬 विशेषज्ञों की राय

वन अधिकारों के विशेषज्ञों का कहना है कि यदि सरकारें सही नीयत से पेसा और वन अधिकार अधिनियम को लागू करें तो आदिवासी समुदाय को सशक्त किया जा सकता है। लेकिन यदि कानूनों को कागज़ तक सीमित रखा गया, तो संघर्ष और असंतोष का विस्तार तय है।

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🧭 निष्कर्ष: आगे क्या?

मध्यप्रदेश विधानसभा में उठे इस मुद्दे ने राज्य की राजनीति में एक बार फिर से आदिवासी अधिकारों को केंद्र में ला दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार अब इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है और क्या वास्तव में आदिवासी समुदाय के हितों को प्राथमिकता दी जाती है या नहीं।

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